अपना सा रिश्ता – प्रयास गुप्ता
“साहित्य हमारी आंतरिक अनुभूति की अभिव्यक्ति का साधन है। प्रस्तुत कहानी जीवन के एक ऐसे दृश्य को उद्घाटित करती है जहां हम किसी एक ना एक ऐसे व्यक्ति से अवश्य जुड़े रहते है जो हमारे लिए खून के रिश्ते से भिन्न और जीवन का अभिन्न रिश्ता होता है और जिसे हम कभी भूलना या दूर होना नहीं चाहते वह औपचारिक दुनिया से अलग अपनी स्वयं की दुनिया का रिश्ता होता है।
हर व्यक्ति के जीवन में एक इंसान अवश्य होता है जो इस रिश्ते को निभाता है फिर वह सांसारिक किसी भी वेश में अर्थात मां, पिता, भाई, बहन अथवा मित्र आदि का हो सकता है और वह बिना किसी द्वेष के बिना किसी औपचारिकताओं के अपना सा रिश्ता होता है जिसमें अपनापन और समर्पण चरम पर होता है और वह अपना सा कहलाता है।”
” अपना सा रिश्ता “
भोपाल में झीलों का सुंदर मनोहर दृश्य और भोपाललियों की मीठी भाषा के साथ फीकी चाय का आंनद यूनिवर्सिटी के अनेक मित्रो के उठाते हुए हम यहां के वातावरण में ढलने लगे थे। मै अपने छोटे से गांव से पढ़ने का चरम उद्देश्य लेकर यहां आया और उसकी आेर अग्रसर भी रहा। यूनिवर्सिटी में पिछले पांच साल से साथ पढ़ने वाले आज भी साथ थे।
जिनमे मित्र, प्रियमित्र का रिश्ता बहन भाई के रिश्ते साथ गठबंधन किए हुए था। यहां आने पर जीवन पूरी तरह परिवर्तित था। जैसा मै व्यकितगत तौर पर जीवन का दृष्टिकोण को रखे हुए था उस बढ़ाकर एक विस्तारपूर्ण जीवन शैली को प्राप्त करने का समूचा उद्देश्य यहां की हवाओं में था।
यूनिवर्सिटी में दो गेट थे एक से पार्किंग में जाया जाता था और दूसरे से डायरेक्ट एंट्री का प्रावधान था। जंगलों के बीच बनी यह यूनिवर्सिटी प्रकृति से पूरी तरह जुड़ी हुई और संबद्ध थी, अंदर जाते ही तीन बिल्डिंगों के साथ डायरेक्टर ऑफिस अपनी अपनी भूमिका में खड़ा था जिसके ठीक दांए और कैंटीन थी, और दूसरी कैंटीन लाइब्रेरी के सामने से, लाइब्रेरी, वहीं तीनो बिल्डिंगों के बीच वाली।
हमारा काम तो नई बी. ए. बिल्डिंग में रहता था, वहीं तो रूम ७७ में हमारा जमावड़ा लगा रहता था। वहीं तो मुझे सुरभि मिलती थी, सुरभि, वहीं जिसका अलग सा स्थान जीवन में बन सा गया है। सुरभि के साथ हमारे पुराने साथी प्रणिता, मयूरी, और सारांश नीरज, स्तुति भी वहीं मिलते थे। कितना अच्छा लगता है जब पांच साल एक साथ पढ़े, वहीं मित्र अभी भी साथ थे। लेकिन यह उतना अच्छा भी ना था,,,,,
स्तुति और मेरा, मतलब स्तुति और प्रशांत का पहले जैसा रिश्ता था जो चार वर्षो को पूरा करने के लिए आतुर था किसी कारणवश टूट गया और वह प्रशांत के लिए पूरी तरह अजनबी सा बन गया, शायद प्रशांत अर्थात मै उस रिश्ते से, जो केवल मित्रता का नहीं था, उससे भी ज्यादा कुछ था जिसे स्तुति के चरम प्रेम ने परिपक्वता देकर तीन साल तक बांधे रखने और जोड़े रखने के लिए हर कुछ किया
ऊब सा गया। शायद ऊबा नहीं जीवन पर पड़ने वाला कोई और प्रभाव मुझे उस रिश्ते से दूर ले जाकर अपने में प्रवृति करने को आतुर हुआ।
“आह! यह जीवन भी क्या-क्या रंग दिखाता है, नये-नये लोगो से मिलवाकर उन्हें, अपने चरम उद्देश्य को प्राप्त कराने हेतु पुनः दूर कर देता है कुछ नया सीखा जाता है और वो ये सोचते रहते है कि हम बदल गए”
जीवन में पड़ने वाले प्रभाव हमारा व्यवहार, परिदृश्य और दृष्टिकोण बदलने का कारण होते है, इंसान स्वयं नहीं बदलता, वह बदला जाता है। हमारे जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव अथवा बाहरी कारण केवल प्रभाव डालते है उस प्रभाव से प्रभावित होना अथवा नहीं होना ये हमारे उपर निर्भर है। कुछ इच्छाएं, कुछ अभिलाषाएं, कुछ जिम्मेदारियां और कुछ परेशानियां अपने जीवन में इन प्रभावों के रूप में उपस्थित होती है और पुनः जीवन के उस चरम उद्देश्य की आेर पहुंचाने हेतु हमे और हमारे व्यक्तित्व को परिमार्जित करती है।
स्तुति से रिश्ता टूटने के बाद हमारे मित्रगणों का समूह कुछ टूटा-टूटा सा और उपसमूहों में सा बट गया, कुछ मेरे और कुछ स्तुति के, और इसका दोषी था मै अर्थात प्रशांत। परन्तु प्रत्येक दोषी के दोष के पीछे एक कारण होता है एक स्तिथि से वह ग्रसित होता है, कोई भी व्यक्ति एक शब्द भी यदि कहता है तो उसके पीछे कुछ ना कुछ मनःस्तिथि या बाह्य वातावरण का हस्तक्षेप अवश्य रहता है, मेरे पीछे भी था जिसे शायद किसी ने समझा नहीं या जाना नहीं, शायद समझना चाहा नहीं और चाहा भी तो माना नहीं।
पिताजी की नौकरी छूटने के बाद घर के बड़े होने के कारण जिम्मेदारियों का धनी मै था, और आर्थिक विपन्नता विरासत में मिली थी। आर्थिक विपन्नता का कारण भी था, जिम्मेदारियों को समय रहते पहचान लिया जाता तो शायद,,,,,,,,
बहरहाल कुछ प्राथमिकताओं ने दृष्टिकोण को बदल दिया और प्रेमी हृदय अपने लक्ष्य के प्रेम को, आतुर हुआ और अग्रसर भी।
इस स्तिथि के रहते समझने वाले कुछ थे, जानने वाले कुछ और अन्य मजे लेने वाले। हमेशा साथ देने वाला और मेरे कष्ट को अपना तनाव समझने वाला शक्स जिसने मेरी गलती के पीछे स्तिथि को जाना वह एक थी, ‘सुरभि’।
वही जो दसवीं में पाठक सर की प्रिय थी, जब सबने यह जाना कि मैने गलत किया तब उसे पता नहीं क्यों मुझे समझना था।
“जब मैने गलती की है तो भुगतना तो पड़ेगा”
“गलती एक बार की सजा एक बार मिलनी चाहिए अब हर गलती के लिए तू ही तो जिम्मेदार नहीं है ना”
“हां, लेकिन गलती तो मेरी ही है न”
“तू गलती मान चुका है और सहन भी कर रहा और सुन भी रहा है, हर किसी की गलती या हर एक परेशानी के लिए तू ही तो जिम्मेदार नहीं है ना और ना ही दोषी है,”
“हां, शायद,,,,,,!”
“शायद नहीं, हां! तेरी जितनी गलती है उसके लिए जो तूने सहा और सुना, बहुत है अब मै नहीं चाहती कि तू उस एक गलती की वजह से हमेशा परेशान रहे।”
सुरभि का इस बात के लिए जिद करना कि मै खुदको दोष देना बंद करू, मुझे जीवन में एक नए से पहलू को समझ गया, जो हुआ, जो होता है और जो होगा वह तुमसे नहीं तुम्हारी परिस्थिति के वश से , परन्तु कोई भी परिस्थिति हमे अपने चरम उन्नति और उद्देश्य से विचलित नहीं कर सकती यह तो हमारी मनः स्तिथि पर निर्भर है कि हम उन विपरीत परिस्थिति से किया प्रभावित होते और अनुकूल परिस्थिति में कितना हतोत्साहित।
एक बार जब मै लाइब्रेरी के सामने बैठा था मयूरी के साथ, तब सुरभि की तबियत बिगड़ने का पता लगते ही उसके पास गया और उसकी तबियत की टेंशन में ये ना जान पाया कि मै स्तुति की नजरो में अभी भी दोषी था मेरे द्वारा हर शब्द उसके लिए परेशानीकारक हो सकते था, क्योंकि वह एक गलती जो मैने उससे रिश्ता तोड़ कर की थी उसकी सजा जो भुगतनी थी, लेकिन उस समय मै बस सुरभि के लिए सोच रहा था।
” क्या हुआ तुझे,,?”
“कुछ नहीं बस सर घूम रहा है”
” तू चल मेरे साथ डॉक्टर के पास, बुखार भी तो है।”
” नहीं मै चले जाऊंगी, मयूरी के साथ,,,,,!”
मेरे बहुत कहने के बाद जब वह नहीं मानी तो मुझे हारना पड़ा, ये वही सुरभि है जिसको मैने बताया तक नहीं था मेरी तबीयत के बारे में और देख कर समझ गई, दूसरे दिन दवा मेरे हाथ में,,शायद ये रिश्ता भी अंदर से जुड़ा है मन से, हृदय से, जिसने हमें एक-दूसरे में प्रवृत होने का और जुड़ने का साहस दिया। नहीं तो आज कौन जुड़ना चाहता है वास्तव में, मन से, हृदय से,,,,,,,,,!
उस शाम सुरभि को डॉक्टर के पास बॉटल लगाने और अन्य ट्रीटमेंट के बाद मयूरी से मैने पूछा कि कौन गया था सुरभि के साथ तो उसने यहीं कहा कि सिर्फ मै।
“मुझे पता था, मैने तुझसे पहले ही बता दिया था,” – मैने अपनी बात की सिद्धता हेतु कहा।
“रहने दे, मैको नहीं पड़ता फर्क, हमेशा मैने किया ही है, और आगे भी कर दूंगी” – निश्चिंत सा स्वर लेकर मयूरी ने कहा।
मै निर्वाक था और सोच रहा था कि मैने मयूरी को कहा ही था कि मैको पता है तेरे अलावा कोई नहीं जाने वाला और स्तुति ने यह बात सुन ली थी और इसी वजह से वह नहीं गई।
“अब तबियत कैसी है” – दूसरे दिन सुरभि के मिलते ही मैने पूछा।
“ठीक है, लेकिन दर्द है हाथ में”
“क्यों,,?”
“बॉटल लगवाई थी तो सूजन है।”
“ठीक हो जाएगा” – मैने चिंता से कहा।
“तुझे क्या हुआ” – मुझे चिंतित देख सुरभि ने पूछा।
“कुछ नहीं बस ये सोच रहा था कि मैने कुछ किया ही नहीं, बस तेरी टेंशन में ऐसा निकल गया था कि कोई तेरे साथ नहीं जाएगा और अब इस बात पर राई का पहाड़ बन सकता है स्तुति को मेरी बाते कुछ ज्यादा ही परेशान करती है और ये बात उसने सुन ली थी”।
” खैर तू मेरी चिंता मत कर कुछ कहेगी या सुनाएगी तो सुन लेंगे, अब तो आदत है।” – प्रशांत ने मनःस्तिथि और असमर्थता व्यक्त की।
(दोनों शांत)
“जाने दे ना” – प्रशांत ने फिर से कहा, “मुझे फर्क नहीं पड़ता।”
“मुझे पड़ता है ना।”
सुरभि के इस एक वाक्य से प्रशांत समझ गया उस अपनत्व को जो सुरभि और प्रशांत के बीच में था। दोनों को एक-दूसरे से जो जुड़ाव हो गया था वह तो शायद ही समझ में आए क्योंकि मित्रता और स्वच्छंदता के साथ एक ऐसा रिश्ते का बनना जिसमे रिश्ते की सीमाओं से बढ़कर समर्पण किया जाए, जहां रिश्ते की, समाज की, वातावरण की विभिन्न स्तिथि-परिस्थिति, अपनत्व और मित्रता को प्रभावित नहीं कर पाती, वही बनता है एक ऐसा रिश्ता जो अत्यंत अटूट और गूढ़ रहकर भी साक्षात होता है।
हर एक रिश्ता जो हमें हमारे कर्तव्य और समाज में सीमाओं का बोध कराता है वहीं रिश्ता यदि सभ्यता की सीढ़ियों को चढ़कर स्वच्छंदता को प्राप्त हो जाए तो वह जैसा गाढ़ापन और अटूटपन ग्रहण करता है, वह कोई साधारण विधिनिर्मित रिश्ता नहीं।
आज जब सुरभि दूर भी है किन्तु रिश्तों में कोई दरार नहीं और ना ही कोई महीनता। बिना कहे ही जो रिश्ता आपसी समझ को अपना ले, क्या जरूरी है वह विधाता निर्मित ही हो, या कोई भी रिश्ता जो विधाता निर्मित है जरूरी है कि उस स्वच्छंदता को प्राप्त कर सकता है।
एक ऐसा ही तो रिश्ता मेरा अर्थात प्रशांत और सुरभि का है। जहां स्वच्छंदता तो है, जहां अपनत्व तो है, जहां मित्रता तो है, परन्तु मर्यादा और सभ्यता के उद्यान में खिले उन पुष्पो की भांति को उद्यान की शोभा बढ़ा रहे है। कुछ रिश्ते उस स्वच्छंदता और अपनत्व और मित्रता के पवित्र और निर्मल भाव को अंतरंग ही कुछ जान कर मर्यादा और सभ्यता के उस उद्यान को कलंकित और दुर्गन्धित करते है, किन्तु मुझे हर्ष है की मेरा रिश्ता अत्यंत निर्मल और दोषमुक्त है और समाज, सभ्यता और संस्कारित मर्यादा का पालनकर्ता है, ऐसे अनेक रिश्ते हो सकते है, जो पृथ्वी मां के आंचल में पलते हुए जीवन के चरम शिखर तक अटूट रहते है।
हालांकि मेरा अर्थात प्रशांत और सुरभि का अटूट रिश्ता तो भाई-बहन का है। वह मेरी मूहबोली बहन है और मेरा रिश्ता “अपना सा रिश्ता है।”
“अपना सा रिश्ता”
प्रयास गुप्ता।
बी. ए. प्रथम वर्ष।
13/07/2020
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भावपूर्ण..🌸
धन्यवाद नम्रता।