दिन ढलने लगा है! – नम्रता शुक्ला

घड़ी का काटा
आहिस्ता बढ़ने लगा है।
आ गई है शाम
दिन ढलने लगा है।।

ये हल्की हल्की महक बता रही है
भीतर कोई पकौड़े
तलने लगा है।
तुम्हारे हाथों की बनी
एक प्याली चाय को
मन मचलने लगा है।
आ गई है शाम
दिन ढलने लगा है।।

आओ बैठो पास जरा तुम
कुछ सूख दुख बतियाते हैं।
काम तुम्हारा लगा उम्रभर
कुछ पल साथ बिताते हैं।
वो देखो
उस झुरमुट के पीछे
चांद चुपके से निकलने लगा है
आ गई है शाम
दिन ढलने लगा है।।

यूं तो दिनभर बोला करती हो
अब भी तो कुछ बतियाओ।
सांझ की मधुर बेला को
ऐसे तुम न गवाओ।
इन नाजुक आंखों से कह दो
थोड़ा सा मुस्कुराओ।
देखूं हंसी तुम्हारी चंचल
दिल जरा मचलने लगा है।
आ गई है शाम
दिन ढलने लगा है।।

पंछी भी घर की ओर चले
नभ में कर सैर – सपाटा ।
रोते हुए बालक का स्वर है
कोई इसको गीत सुनाता।
वो देखो आकाश में भी अब
तारों का जमघट लगने लगा है।
काली बदली में छिपता
वो चांद का टुकड़ा,,,,,
तुम्हारी प्रतिमा में बदलने लगा है।
आ गई है शाम
दिन ढलने लगा है।।

~ नम्रता शुक्ला


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Neeraj Yadav

मैं नीरज यादव इस वैबसाइट (ThePoetryLine.in) का Founder और एक Computer Science Student हूँ। मुझे शायरी पढ़ना और लिखना काफी पसंद है।

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