ये किरणों का दुपट्टा..!! – नम्रता शुक्ला
आहट नहीं होंने देता
कुछ गुमशुदा सा है
दीवारों पर…
दिन की गुजर में
कुछ खामोश सा
मीनारों पर …
तड़के ही बिखर जाता है
सुनहरी, चटकीली धूप में
कभी खिड़की से आता मकान में
कभी कूदता, फांदता दालान में।
छितिज से बंधा था जो
बादलों में अटक गया
नदियों की ओर मुड़ा तो
जंगल में भटक गया।
फूलों से बतियाते
मैढों पर लटक गया
ताजगी सा आया
पर नींद को खटक गया।
भोर होते ही मेरे
ख़्वाबों को गटक गया
ये किरणों का दुपट्टा…
देखो न धूप छिड़क गया।
अपनी ही छाती पर
सूरज का बोझ ढोता है
बीन बीन अंधेरों को
उजाले पिरोता है
ढूँढती हूँ जब इसे
तो कहीं छुप जाता है
रोज शाम ढलते ही
नजर नहीं आता है
ये किरणों का दुपट्टा है…
हाथ झटक जाता है..!!
~ नम्रता शुक्ला